स्मृति का देवदूत
याद के घट में प्रीत की नमी
भरके जब दिल के करीब लाई ही थी वह
क्षण भर भी नही लगा
बादल छा गये अंतर आकाश पर
ऐसा खामोश अंधड़ उठा भीतर
चुप्पी की गर्जना हुई
दामिनी दमकी टीस सी
और तभी कूकने लगी कोयल सी धारा
नृत्य जगा शांत कदमों में
हँसी जो बाहर नहीं सुनी किसी ने
पर गूंज उठा अंतर उपवन
कोलाहल बहुत था
उमड़ती भाव रश्मियों का
स्पंदनो और कम्पनों का
अनसुना नहीं रहा होगा किसी के तो कानों से
दूत बन कर जो आया था स्मृति का
ठगा सा तकता रहा निर्निमेष !
ख़ुशी स्मृति में दौड़ी चली आई होगी !
जवाब देंहटाएंवाणी जी, सही कहा आपने..
हटाएंयशोदा जी, स्वागत व बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंMemories cling to us in their own unique way!
जवाब देंहटाएंयस !
हटाएंमन के भावों को प्रकृति के बिम्ब से बहुत खूबसूरती से उकेरा है ...
जवाब देंहटाएंवाह अद्भुत भावों से भरी रचना
जवाब देंहटाएंbhavo ka sundar shabdankan ..
जवाब देंहटाएंवाह अद्भुत अहसास...रचना के भाव अंतस को छू गए...आभार
जवाब देंहटाएंयादों का आनंद अद्भुत होता है।
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जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर हर शब्द अर्थ गर्भित भाव संसिक्त शैली अपना मार्दव लिए है भाषिक सौन्दर्य भी देखते ही बनता है।
वीरू भाई, देवेन्द्र जी, कैलाश जी, वन्दना जी, कविता जी तथा संगीता जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर |
जवाब देंहटाएंखूबसूरत भाव लिए हुए
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