सदियों से थिर थे जो पर्वत
उतरी है गोमुख से गंगा
गंगोत्री में तनिक ठहरती,
हिम शिखरों से ले शीतल जल
चट्टानों में मार्ग बनाती !
भीम वेग, सौन्दर्य अनोखा
लख ऋषियों ने गाए स्त्रोत,
उर जल राशि अपार समेटे
करती भूमि को ओत प्रोत !
आज हुई है रुष्ट क्यों जाने
बहा ले गयी जड़-चेतन सब,
मन्दाकिनी, जो प्राण दायिनी
नाचे काल भैरवी सी अब !
जान्हवी की पावन धारा
बनी साक्षी इस विनाश की,
सदियों से थिर थे जो पर्वत
बिखरे ज्यूँ इमारत ताश की !
गंगा की सप्त धाराएँ
मिलकर एक हुईं जिस जगह,
आज बनी श्मशान बिलखती
देव भूमि अनाथ की तरह !
किन्तु थमेगा तांडव शिव का
नर-नारायण पुनः मिलेंगे,
शेष रहा जो पनपेगा फिर
गंगा के तट पुनः बसेंगे !
हर हर गंगे-
जवाब देंहटाएंबढ़िया गंगा महिमा-
आभार-
गहुत सुन्दर भाव..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर आशा ...!!शुभकामनायें ......!!
जवाब देंहटाएंआज हुई है रुष्ट क्यों जाने
जवाब देंहटाएंबहा ले गयी जड़-चेतन सब,
मन्दाकिनी, जो प्राण दायिनी
नाचे काल भैरवी सी अब !
bahut adhik dukh deti hai nadiyon ka ye badlav aur iske doshi bhi to manav hi hai .........
आपने सही कहा है संध्या जी
हटाएंइसी आशा पर तो सृष्टि है ..अति सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर कविता। प्रथम बार आपके ब्लॉग पर आपना अत्यन्त सार्थक रहा।
जवाब देंहटाएंआगे भी आते रहिये
हटाएंसुन्दर रचना स्वगत कथन सी सवालों के उत्तर तलाशती सी।
जवाब देंहटाएंमाँ गंगा से क्षमा माँग कर अपनी गति-विधि सुधार लें तो वे पुनः स्नेह-सलिला हो उठेंगी!
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी, यही करणीय है
हटाएंआमीन ... ये गंगा तट पुनः बसेंगे ...
जवाब देंहटाएंमनुष्य को अपनी गलती का एहसास समय रहते होना चाहिए ... प्राकृति तो देना ही चाहती है ...
आभार,वन्दना जी
जवाब देंहटाएंआभार, यशवंत जी
जवाब देंहटाएंरजनीश जी, रविकर जी, माहेश्वरी जी, अनुपमा जी, वीरू भाई अमृता जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंकिन्तु थमेगा तांडव शिव का
जवाब देंहटाएंनर-नारायण पुनः मिलेंगे,
शेष रहा जो पनपेगा फिर
गंगा के तट पुनः बसेंगे !
इसी आस मेन….बहुत ही सुन्दर |
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