आना वसंत का 
जब नहीं रह जाती शेष कोई आशा 
 निराशा के भी पंख कट जाते हैं
तत्क्ष्ण ! 
जब नहीं रह जाती ‘मैं’ की धूमिल सी छाया भी 
उसकी झलक मिलने लगती है उसी क्षण 
निर्भर, निर्मल वितान सा जब फ़ैल जाता है 
मन का कैनवास 
 प्रेम के रंग बिखेर जाता है कोई
अदृश्य हाथ 
माँ की तरह साया बन कर चेताती चलती है 
छंद मयी हो जाती है कायनात !
छूट जाते हैं जब सारे आधार 
तब ही भीतर कोई कली खिलती है 
बज उठते हैं मृदंग और साज 
जुड़ जाते हैं जाने किससे अंतर के तार ! 
जब पक जाता है ध्यान का फल भी 
झर जाता है जन्मों का पतझड़ 
और उतर आता है चिर वसंत जीवन में !
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ek swapn ki bhanti hai abhi ye humare liye to
जवाब देंहटाएंस्वप्न एक दिन सच होने ही वाला है..
हटाएंअहम अहंकार मैं और मेरा का ज़रूरी है :
जवाब देंहटाएंजब नहीं रह जाती शेष कोई आशा
निराशा के भी पंख कट जाते हैं तत्क्ष्ण !
जब नहीं रह जाती ‘मैं’ की धूमिल सी छाया भी
उसकी झलक मिलने लगती है उसी क्षण
निर्भर, निर्मल वितान सा जब फ़ैल जाता है
मन का कैनवास
(तत्क्षण )सुन्दर मनोहर रचना।
प्रेम के रंग बिखेर जाता है कोई अदृश्य हाथ
जवाब देंहटाएंमाँ की तरह साया बन कर चेताती चलती है
छंद मयी हो जाती है कायनात !
छूट जाते हैं जब सारे आधार
तब ही भीतर कोई कली खिलती है
बज उठते हैं मृदंग और साज
अप्रतिम बिम्ब विधान
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार, वीरू भाई !
जवाब देंहटाएंउसी चिर बसंत की प्रतीक्षा है..
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