कितनी बार द्वार तक आया
पर पहचान नहीं पाए हम,
उसने अपना वचन निभाया
लेकिन जान नहीं पाए हम !
दस्तक दी, पुकार लगाई
अपनी नींद बड़ी गहरी थी,
उसने खतो-किताबत भी की
मन हिरणी पर कब ठहरी थी !
वृन्दावन से आया जोगी
झोली फैलाई थी उसने,
कृपण बड़ा मन नादां जिसने
किये कपाट बंद हृदय के !
पीरों से संदेश सुनवाये
फिर भी न जागे, न देखा,
विजय दिलाने को आतुर था
बंद पड़ी किस्मत की रेखा !
अब बैठा बस सिर धुनता है
अपनी भूलों को गुनता है,
नजर लगी हर पल द्वार पर
आयेगा सपने बुनता है !
bahut sundar.................
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंकितनी बार द्वार तक आया
जवाब देंहटाएंपर पहचान नहीं पाए हम,
उसने अपना वचन निभाया
लेकिन जान नहीं पाए हम !
...बिल्कुल सच...बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...
कितनी बार द्वार तक आया......अत्यंत गहन और सुन्दर कविता |
जवाब देंहटाएंबस यही एक कमी रह जाती है ... मगन रहता है अपने आप में ही इंसान और पहचान नहीं पाता उसे ...
जवाब देंहटाएंसंध्या जी, संजय जी, कैलाश जी, ओंकार जी , दिगम्बर जी, इमरान व समीर जी आप सभी का स्वागत व आभार !
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