जैसे
उतरा हो वसंत
मन उमग रहा
उसकी आहट है !
खिले पलाश मधु बरसा
पादप-पादप सुख से सरसा
गाती कोकिल भावों का उड़ा पराग
फिर भी न जाने कैसी अकुलाहट है !
चिर प्रतीक्षा थी जिसकी
पाहुन वह घर आया
पोर-पोर में धुन बजती
ज्यों अंतर कलिका खिलती
किसलय रक्तिम ज्यों नाच रहे
तितली दल खुशबू बांछ रहे
उर में उडती सी आस लिए
यह कैसी घबराहट है !
उर्वर मन का कोना-कोना
मौन कोख माटी की ज्यों हो
बीज प्रतीक्षा का था बोया
सिंचन करने मन था रोया
आज खिले हैं जूही, चम्पा
भूल गयी काली रातें वे
बिसर गयीं घन बरसातें वे
फिर भी न जाने क्यों
शंकित सी बुलवाहट है !
सुन्दर लिखा
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जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव गीत प्रांजल शब्द लय ताल और नाद लिए अंतस की आवाज़ लिए और.
मन की शंका कभी जाती नहीं -यही मानव मन की द्विधा है !
जवाब देंहटाएंकुंवर जी, यशोदा जी, वीरू भाई व प्रतिभा जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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