सोमवार, अगस्त 18

जैसे

जैसे


उतरा हो वसंत
मन उमग रहा
उसकी आहट है !

खिले पलाश मधु बरसा
पादप-पादप सुख से सरसा
गाती कोकिल भावों का उड़ा पराग
फिर भी न जाने कैसी अकुलाहट है !

चिर प्रतीक्षा थी जिसकी
पाहुन वह घर आया
पोर-पोर में धुन बजती
ज्यों अंतर कलिका खिलती
किसलय रक्तिम ज्यों नाच रहे
तितली दल खुशबू बांछ रहे
उर में उडती सी आस लिए
यह कैसी घबराहट है !

उर्वर मन का कोना-कोना
मौन कोख माटी की ज्यों हो
बीज प्रतीक्षा का था बोया
सिंचन करने मन था रोया
 आज खिले हैं जूही, चम्पा
भूल गयी काली रातें वे
बिसर गयीं घन बरसातें वे
फिर भी न जाने क्यों
शंकित सी बुलवाहट है !


5 टिप्‍पणियां: