ग्रीष्म की एक संध्या
छू रही गालों को शीतल ग्रीष्म की महकी पवन
छा गए अम्बर पे देखो झूमते से श्याम घन
दिवस की अंतिम किरण भी दूर सोने जा रही
सुरमई संध्या सुहानी कोई कोकिल गा रही
कुछ पलों पहले हरे थे वृक्ष काले अब लगें
बादलों के झुण्ड जाने क्या कथा खुद से कहें
छू रही बालों को आके कर रही अठखेलियाँ
जाने किसको छू के आयी लिये नव रंगरेलियाँ
चैन देता है परस और प्यास अंतर में जगाता
दूर बैठ एक चितेरा कूंची नभ पर है चलाता
झूमते पादप हंसें कलियाँ हवा के संग तन
नाचते पीपल के पत्ते खिलखिला गुड़हल मगन
गर्मियों की शाम सुंदर प्रीत के सुर से सजी
घास कोमल हरी मानो रेशमी चादर बिछी
है अँधेरा छा गया अब रात की आहट सुनो
दूर हो दिन की थकन अब नींद में सपने बुनो
कितना सुन्दर वर्णन किया है!
जवाब देंहटाएंजीने से लगते है हर शब्द के साथ हम भी।
राग भरी प्रकृति का लास्य !
जवाब देंहटाएंकल 15/नवंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
बहुत बहुत आभार !
हटाएंप्रकृति का सुन्दर विहंगम चित्रण ..
जवाब देंहटाएंअनिल जी, प्रतिभा जी, व कविता जी, आप सभी का स्वागत व आभार !
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