दुःख की ही गाथा बनती है
मौन हुए स्वर, सूना अंतर
फिर भी सब पाया लगता है,
अब जब लिखने की फुर्सत है
मन का घट खाली लगता है !
टूटी जब से दुःख की गागर
गीत विरह के भी छूटे,
चाह मिटी जब अंतर मन से
स्वप्न हृदय के सब रूठे !
दुःख की ही गाथा बनती है
सुख तो खाली हाथ खड़ा,
कलम थमी अब शब्द न मिलते
भीतर है आराम बड़ा !
नहीं शिकायत कोई जग से
अब क्या शायर गजल कहे,
मीत छिपा है अपने घर में
अब क्यों बिरहन पीर सहे !
अब तो चैन पड़ा है दिल को
कागज कोरा ही रह जाता,
तृप्त हुआ है पंछी मन का,
अब न कहीं दौड़ा जाता !
बढ़िया गंगा अनवरत प्रवहमान है इस रचना में।
जवाब देंहटाएंदुःख की ही गाथा बनती है
जवाब देंहटाएंसुख तो खाली हाथ खड़ा,
कलम थमी अब शब्द न मिलते
भीतर है आराम बड़ा !
....बहुत गहन और अंतस को सुकून देती सार्थक अभिव्यक्ति...अद्भुत
दुःख और पीड़ा सृजन का ही स्रोत नहीं है आराधना का भी अधार है . सुख-दुःख से परे होजाने पर हम एक समतल पर होते हैं ,एक सपाट रास्ता ,जहां आराम है लेकिन गति नहीं . आप तो निरंतर गतिशील हैं तभी तो यह सुंदर सृजन जारी है . दुःख की ही गाथा बनती है --बिलकुल सही कहा है आपने .
जवाब देंहटाएंसही कहा है, आपने गिरिजा जी, जीवन में गति न हो तो जीवन रुक जाता है...इसीलिए प्रकृति में विरोध साथ साथ चलते हैं
हटाएंकागज कोरा भी बहुत कुछ कह जाता है
जवाब देंहटाएंगहन भाव ....
सृजन दर्द से ही उत्पन होता है ... और शब्दों में जिस दर्द को उतारा जाता है वही निर्मल धार बन जाती है काव्य की ... दिल को छूती हुयी रचना ...
जवाब देंहटाएंदुख बहुत कुछ दे जाता है ,एक सीमा के आगे अंतर में व्याप्त प्रशान्ति ही उसका प्रसाद है !
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जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपकी निरंतर टिप्पणियों का। सशक्त रचना आपने हर बार पढ़वाई है। आभार।
बहुत सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : इच्छा मृत्यु बनाम संभावित मृत्यु की जानकारी
कल 11/दिसंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
वीरू भाई, कैलाश जी, प्रतिभा जी, संध्या जी, राजीव जी व दिगम्बर जी आप सभी का स्वागत व सार्थक टिप्पणियों के लिए बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंनहीं शिकायत कोई जग से
जवाब देंहटाएंअब क्या शायर गजल कहे,
मीत छिपा है अपने घर में
अब क्यों बिरहन पीर सहे .....परिपूर्ण मन को व्यक्त करती सुंदर कविता
तृप्त हुआ है पंछी मन का....
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