जीवन बंटता ही जाता है
बाँट रहा दिन-रात हर घड़ी
खोल दिए अकूत भंडार,
युगों-युगों से जग पाता है
डिगता न उसका आधार !
शस्य श्यामला धरा विहंसती
जब मोती बिखराए अम्बर,
पवन पोटली भरे डोलती
केसर, कंचन महकाए भर !
जा सिन्धु में खो जाती हैं
जल राशियाँ भर आंचल में,
नीर के संग-संग नेह बांटती
तट हो जाते सरस हरे से !
जीवन बंटता ही जाता है
मानव उर क्यों सिमट गया,
उसी अनंत का वारिस होकर
क्यों न जग में बिखर गया !
कोमल शब्दों से सजी अच्छी प्रस्तुती
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रचना जी
हटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुरदासपुर आतंकी हमला और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार..
हटाएंजीवन बंटता ही जाता है
जवाब देंहटाएंमानव उर क्यों सिमट गया,
उसी अनंत का वारिस होकर
क्यों न जग में बिखर गया !
दार्शनिक पक्ष का अन्वेषण करती रचना जीवन और जगत के।
स्वागत व आभार !
हटाएंbehatreen likha aapne
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