सोमवार, जुलाई 27

जीवन बंटता ही जाता है



जीवन बंटता ही जाता है


बाँट रहा दिन-रात हर घड़ी
खोल दिए अकूत भंडार,
 युगों-युगों से जग पाता है
डिगता न उसका आधार !

शस्य श्यामला धरा विहंसती
जब मोती बिखराए अम्बर,
पवन पोटली भरे डोलती
केसर, कंचन महकाए भर !

जा सिन्धु में खो जाती हैं
जल राशियाँ भर आंचल में,
नीर के संग-संग नेह बांटती
तट हो जाते सरस हरे से !

जीवन बंटता ही जाता है
मानव उर क्यों सिमट गया,
उसी अनंत का वारिस होकर
क्यों न जग में बिखर गया !

7 टिप्‍पणियां:

  1. कोमल शब्दों से सजी अच्छी प्रस्तुती

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन गुरदासपुर आतंकी हमला और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. जीवन बंटता ही जाता है
    मानव उर क्यों सिमट गया,
    उसी अनंत का वारिस होकर
    क्यों न जग में बिखर गया !

    दार्शनिक पक्ष का अन्वेषण करती रचना जीवन और जगत के।

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