उसका मिलना
याद
आता है कभी ?
माँ
का वह रेशमी आंचल
छुअन
जिसकी सहला भर जाती थी
अँगुलियों के पोरों को
भर
जाता था मन आश्वस्ति के अमृत से
दुबक
कर सिमट जाना उस गोद में
अभय
कर जाता था
नजर
नहीं आती थी जब छवि उसकी
डोलती
आस-पास
तो
पुकार रुदन बनकर
फूट
पडती थी तन-मन के पोर से
खुदा
भी उसके जैसा है
जिसकी
याद का रेशमी आंचल
अंतर
को सहला जाता है
जिसकी
शांत, शीतल स्मृति में डूबते ही
सुकून
से पोर-पोर भर जाता है
माँ
को पहचानता है जो वही उसे जान पाता है !
याद
आता है कभी ?
पिता
का वह स्नेहाशीष सिर पर
या
उससे भी पूर्व उसकी अँगुलियों की मजबूत पकड़
राह
पर चलते नन्हे कदमों को
जब
सताती थी थकन
कंधे
पर बैठ उसके मेलों में किये भ्रमण
खुदा
भी उसके जैसा है
वह
भी नहीं छोड़ता हाथ
अनजाने
छुड़ाकर भाग जाएँ तो और है बात
पिता
को मान देता है जो अंतर
वही
उससे प्रीत लगा पाता
और
गुरू तो मानो
जीवंत
रूप है उस एक का
सही
राह पर ले जाता
गड्ढों से बचाता
जिसने
गुरु में उसे देख लिया
रूबरू
एक दिन वही उससे मिल पाता !
इंसान बूढा भी हो जाये तो भी माँ बाप की यादों से दूर नहीं हो पाता ...
जवाब देंहटाएंभाव पूर्ण रचना ...
सत्य कहा जो पहचान पाता है वही जान पाता है ।
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