गुरुवार, अप्रैल 28

खिले रहें उपवन के उपवन

खिले रहें उपवन के उपवन


रिमझिम वर्षा कू कू कोकिल
मंद पवन सुगंध से बोझिल,
हरे भरे लहराते पादप
फिर क्यों गम से जलता है दिल !

नजर नहीं आता यह आलम
या फिर चितवन ही धूमिल है,
मुस्काने की आदत खोयी
आँसू ही अपना हासिल है !

अहम् फेंकता कितने पासे
खुद ही उनमें उलझा-पुलझा,
कोशिश करता उठ आने की
बंधन स्वयं बाँधा न सुलझा !

बोला करे कोकिला निशदिन
हम तो अपना राग अलापें,
खिले रहें उपवन के उपवन
माथे पर त्योरियां चढ़ा लें !

आखिर हम भी तो कुछ जग में
ऐसे कैसे हार मान लें,
लाख खिलाये जीवन ठोकर
क्यों इसको करतार जान लें !

2 टिप्‍पणियां:

  1. आखिर हम भी तो कुछ जग में
    ऐसे कैसे हार मान लें,
    लाख खिलाये जीवन ठोकर
    क्यों इसको करतार जान लें !
    ...बिलकुल सत्य...बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...

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  2. ओंकार जी व कैलाश जी, स्वागत व आभार !

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