खिले रहें उपवन के उपवन
रिमझिम
वर्षा कू कू कोकिल
मंद
पवन सुगंध से बोझिल,
हरे
भरे लहराते पादप
फिर
क्यों गम से जलता है दिल !
नजर
नहीं आता यह आलम
या
फिर चितवन ही धूमिल है,
मुस्काने
की आदत खोयी
आँसू
ही अपना हासिल है !
अहम्
फेंकता कितने पासे
खुद
ही उनमें उलझा-पुलझा,
कोशिश
करता उठ आने की
बंधन
स्वयं बाँधा न सुलझा !
बोला
करे कोकिला निशदिन
हम
तो अपना राग अलापें,
खिले
रहें उपवन के उपवन
माथे
पर त्योरियां चढ़ा लें !
आखिर
हम भी तो कुछ जग में
ऐसे
कैसे हार मान लें,
लाख
खिलाये जीवन ठोकर
क्यों
इसको करतार जान लें !
आखिर हम भी तो कुछ जग में
जवाब देंहटाएंऐसे कैसे हार मान लें,
लाख खिलाये जीवन ठोकर
क्यों इसको करतार जान लें !
...बिलकुल सत्य...बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...
ओंकार जी व कैलाश जी, स्वागत व आभार !
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