शनिवार, दिसंबर 10

पा प्रकाश का परस सुकोमल


पा प्रकाश का परस सुकोमल


दानव और दैत्य दोनों ही 
मानव के अंतर में रहते,
कभी खिलाते  उपवन सुंदर 
मरुथल में वे ही भटकाते !

गहरी खाई ऊँचे पर्वत
धूल भरे कंटक पथ मिलते,
समतल सीधी राह कभी बन 
फूलों से पथ पर बिछ जाते !

एक बिना न दूजा रहता 
द्वंद्व यही सुख-दुःख जीवन का,
पलक झपकते ही सपनों में 
दैत्य कभी देव बन जाता !

अंधियारी रातों में पलकर 
अंकुर फूटे, खुशबू बनती,
पा प्रकाश का परस सुकोमल 
कली कोई कुसुम बन खिलती !

पीड़ा मन की ही दे जाती 
खुशियों का इक महा समुन्दर,
कृष्ण बांसुरी की धुन बनते 
जब विषाद में घिरे धुरन्धर !





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