कितना सा था चाहत का घट 
श्वासें  भर जाएँ भावों से 
हो कृतज्ञ झुक जाये अंतर 
जीवन का उपहार मिला है 
बहता जैसे महा समंदर !
धूप नेह की खिली सघन जब 
प्रीत ऊष्मा मेघ बन गयी,
हुई  शुष्क जो नदिया उर की  
 बरस-बरस हो मगन  बह गयी !
कितना सा था चाहत का घट 
भर-भर कर ढुलका जाता है,
 दिशा-दिशा में वही समोया 
कितने दामन भर जाता है !
एक अतल सोता हो जैसे 
अंतहीन या कोई गह्वर,
जाने कहाँ से दे संदेशे 
सुनते ही आ जाते हैं स्वर !
खोलें तो हर द्वार है उसका 
उढ़काया तो वह ही बाहर,
हर आवाज उसी तक जाती 
लिए अनसुने उसके ही स्वर !

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.12.16 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2557 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत बहुत आभार !
हटाएंवाह ! बहुत सुन्दर अरुणा जी ! बहुत प्यारी रचना !
जवाब देंहटाएंस्वागत व बहुत बहुत आभार !
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