निज पैरों का लेकर सम्बल
कितनी बार झुकें आखिर हम
कितनी बार पढ़ें ये आखर,
जीवन सारा यूँ ही बीता
रहे साधते वीणा के स्वर !
श्वास काँपती मन डोलता
हौले-हौले सुधियाँ आतीं,
कितनी बार कदम लौटे थे
रह-रह वे यादें धड़कातीं !
निज पैरों का लेकर सम्बल
इक न इक दिन चढ़ना होगा,
छोड़ आश्रय जग के मोहक
सूने पथ पर बढ़ना होगा !
कितने जन्म सोचते बीते
जल को मथते रहे बावरे,
कब तक स्वप्न देख समझाएँ
कब तक राह तकें सांवरे !
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