सरस बना पल-पल आ डोले
सुख आशा में जाने कितने
दुःख के बीज गिराए पथ में,
जिन्हें खोलने के गुर सीखें
बाँधे बंधन निज हाथों से !
एक बूंद भी विष की जग में
जीवन हर लेने में सक्षम,
धूमिल सी भी कोइ कामना
ढक देती अंतर का दर्पण !
यहाँ लगा बाजार चाह का
होश कहाँ से जगे हृदय में,
फूलों से जो सज सकता था
कंटक उगते मार्ग प्रणय में !
प्रथम कदम को दिशा मिले गर
खुदबखुद राहें खुलीं, गातीं,
सरस बना पल-पल आ डोले
जन्मों की अकुलाहट जाती !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-06-2017) को गला-काट प्रतियोगिता, प्रतियोगी बस एक | चर्चा अंक-2646 पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर
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