समर्पण
झुका चरणों में
जब-जब कोई माथ
पाया सर पर सदा
कोई अदृश्य हाथ
नयनों से झरते
जिस पल अश्रु कृतज्ञता के
हरे हैं भाव सारे
उसने अज्ञता के
पाया कुछ अनमोल..
क्या है.. कहा नहीं जाता
ऐसा कोई गीत है
जो शब्दों में नहीं समाता
सारा अस्तित्त्व
जैसे समा गया हो भीतर
या खो गया मन भी
उस महान के अंदर
रहा कौन शेष ,
लुप्त हुआ कौन.. यह भी रहता अस्पष्ट है
बस भीतर पुलक
नहीं कोई कष्ट है
धरा बन जाती
अनोखा रंगमंच
खो जाता पल भर को
जैसे हर प्रपंच
वृक्ष देते ताल
उस नृत्य के साथ
जो भीतर घटता
बदल जाता सब कुछ
देखते-देखते
पर कोई नजर ना
आता
कैसा अनोखा वह
सुमिलन का क्षण
सज उठता
अस्तित्त्व का कण-कण
भीतर-बाहर का
रहता भेद नहीं कोई
एक अनंत की खुशबू
रग-रग में समोई
शमा जली है जब
जान जाता कोई यह
बन परवाना जल कर
भी बचा ही रहता वह
थोथा उड़ गया तब
सार ही शेष
हर श्वास हर क्षण
लगता विशेष !
आध्यात्म के रंग से सराबोर सुन्दर रचना ... साधुवाद!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शालिनी जी !
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी..
हटाएंआस्था है अगर तो कण कण में दर्शन
जवाब देंहटाएंस्वागत व बहुत बहुत आभार अर्चना जी..आस्था ही मानव को पहले स्वयं से फिर परमात्मा से मिलाती है.
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