दोराहे हर मोड़ खड़े हैं
कहीं प्रज्ज्वलित
अग्नि शिखा सी
कहीं धुँए से ढकी
सुलगती,
कहीं सुगंधित
अनिल बह रही
कहीं घुटन से
फिजां रुँधी सी !
जीवन मिले बिछाय बिसातें
चाहे जिस पाले
में जाएँ,
पल-पल चुनना
स्वयं को यहाँ
किसे सहेजें किसे
लुटाएं !
दोराहे हर मोड़
खड़े हैं
निज हाथों में ही
गेंद सदा,
हों स्वतंत्र हर
दांवपेंच में
काटेंगे खुद का
ही बोया !
एक ही नियम एक
सदुपाय
जागे-जागे कदम
बढ़े हर,
सूत्र यही इस खेल
का सहज
यही बहे बन विजय
का सुस्वर !
बहुत खूब ....
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं !