यहाँ दो नहीं हैं
हर बार जब मैंने तुम्हें
चाहा है
खुद को ही पसंद किया है
हर बार जब तुम्हारी किसी
बात को सराहा है
अपनी पीठ थपथपाई है
हर कोई खुद से प्यार करे
तो कितनी हसीन हो जाये यह
दुनिया
हर बार जब मैं तुम से दूर
हुई
खुद से ही दूर हुई हूँ
हर शिकायत जो मैंने तुमसे
की है
दरअसल वह अपने आप से की है
हर शूल जो मैंने तुम्हें
चुभोया है
मेरे ही दिल में घाव बनकर
कसक दे गया है
यहाँ हर कोई खुद से ही
मुखातिब है
हम स्वयं को नहीं चाहते
और इल्जाम दूसरों पर लगाये
जाते हैं
खुद को सीधे-सीधे सता भी तो
नहीं सकते
किसी के द्वारा खुद को
सताये जाने का
इंतजाम भी खुद ही कर लेते
हैं
यहाँ दो नहीं हैं
तुमसे जुड़ी हर बात खुद से
ही जुड़ी थी
यहाँ केवल तुम ही तुम हो या
केवल मैं ही मैं
यहाँ दो नहीं हैं !
जब दो ही नहीं तो फिर शिकायत किससे .सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा ! लेखन ,सधी व सुन्दर भाव
जवाब देंहटाएंआभार "एकलव्य"
स्वागत व आभार ध्रुव जी !
हटाएंअनीता जी, दो दिखते तो हैं मगर होते कहां हैं , ये प्रेम का ही अनूठापन है जिसे आपने अपनी इस रचना में पिरो दिया। यूं कहें कि दुनिया का लब्बोलुआब बता दिया इन लाइनों में... बहुत खूबसूरत
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