कान्हा तेरे नाम हजारों
जब नभ पर बादल छाये हों
वन से लौट रही गाएँ हों,
दूर कहीं वंशी बजती हो
पग में पायलिया सजती हो !
मोर नाचते कुंजों में हों
खिले कदम्ब निकुंजों में हों,
वह चितचोर हमारे उर को,
कहीं चुराए ले जाता है !
कान्हा याद बहुत आता है !
भादों की जब झड़ी लगी थी
अंधियारी अष्टमी आयी,
लीलाधर ! वह आया जग में
पावन वसुंधरा मुस्कायी !
कितनी हर्षित हुई देवकी,
सुसफल तपस्या वसुदेव की,
टूटे बंधन जब प्रकट हुआ
मिटा अँधेरा जग गाता है !
कृष्ण सभी के मन भाता है !
यमुना की लहरें चढ़ आयीं
मथुरा छोड़ चले जब कान्हा,
लिया आश्रय योगमाया का
नन्दगाँव गोकुल निज माना !
नन्द, यशोदा, दाऊ, दामा
बने साक्षी लीलाओं के,
माखन चोरी, ऊखल बंधन
दुष्ट दमन प्रिय हर गाथा है !
जन-जन नित्य जिन्हें गाता है !
मधुरातिमधुरम वेणु वादन
ग्वाल-गोपियाँ मुग्ध हुईं सुन,
नृत्य अनूप त्रिभंगी मुद्रा
राधा संग बजी वंशी धुन !
चेतन
जड़, जड़ चेतन होते
गोकुल,
ब्रज, वृन्दावन पावन,
युग
बीते तेरी लीला से
नित
नवीन रस जग पाता है !
कृष्णा
नव रस भर जाता है !
कान्हा
तेरे नाम हजारों,
मधुर
भाव हर नाम जगाए,
कानों
में घोले मिश्री रस
माखन
सा अंतर पिघलाए !
तेरी
बातें कहते सुनते
तेरी
लीला गाते सुनते
न
जाने कब समय का पंछी,
पंख
लगाये उड़ जाता है !
अंतर
मन को हर्षाता है !