लहर उठी
सहज तरंगित उच्छल
ऊर्जित
लहर उठी विराट
सागर में,
लक्ष्य नहीं है
कोई जिसका
गिर जाती विलीन
हो पल में !
छूता कोई दृश्य
गगन का
कभी धरा हँसती
अंतर में,
निज सृष्टि शुभा
देख-देख ही
मुग्ध हो रहा कोई
जग में !
कर वीणा तारों को
झंकृत
हर्षित हो निनाद
उपजाता,
सहज जगे जब पग
में नर्तन
उर के भावों को
दर्शाता !
एक सत्य ही प्रकटे सब में
भाव जगें अंतर
में ऐसे,
सहज ऊर्जा रवि
बिखराता
कृत्य झरें ऐसे ही जग में !