कदमों में भी राहें हैं
अभी
जुम्बिश भुजाओं में
कदगों में भी राहें हैं,
अभी है हौसला दिल में
गंतव्य पर निगाहें हैं !
परम दिन-रात
रचता है
जगती नित नूतन सजती,
नींदों में सपन भेजे
जागरण में धुनें बजतीं !
चलें, हम थाम लें दामन
इसी पल को अमर कर लें,
छुपा है गर्भ में जिसके
उसे देखें, नजर भर लें !
अभी झरने दें शब्दों को
प्रस्तर क्यों बनें पथ में,
सृजन का स्रोत है अविचल
बहाने दें सहज जग में !
अभी मुखरित तराने हों
विरह के भी प्रणय के भी,
किसी के अश्रु थम जाएँ
वेदना से विजय
के भी !
नहीं रुकना नहीं थमना
अभी तो दूर जाना है,
जिसे अपना बनाया है
उसे जग में लुटाना है !
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'रविवार' १४ जनवरी २०१८ को लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंवाह!!बहुत सुंंदर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंगंतव्य जब तक सांसें हैं तब तक दूर रहता है प्रेरित करता है उसे पाने के लिए ...
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना है ...
स्वागत व आभार दिगम्बर जी !
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआभार !
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