अनुरागी मन
कैसे कहूँ उस डगर की बात
चलना छोड़ दिया जिस पर
अब याद नहीं
कितने कंटक थे और कब फूल खिले थे
पंछी गीत गाते थे
या दानव भेस बदल आते थे
अब तो उड़ता है अनुरागी मन
भरोसे के पंखों पर
अब नहीं थकते पाँव
औ' न
ही ढूँढनी पड़ती है छाँव
नहीं होती फिक्रें दुनिया की
उससे नजर मिल गयी है
घर बैठे मिलता है हाल
सारी दूरी सिमट गयी है !
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १२ फरवरी २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
बहुत बहुत आभार ध्रुव जी!
हटाएंवाह!!सुंंदर रचना!!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी !
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
बहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुशील जी !
हटाएंबहुत बहुत आभार पम्मी जी !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ओका है अनुरागी मन को अनीता जी
जवाब देंहटाएंओका माने क्या अलकनंदा जी..कहीं आंका तो कहना नहीं चाह रही थीं आप..
जवाब देंहटाएंउससे नज़र मिल जे अनुराग तो स्वतः जागेगा ...
जवाब देंहटाएंप्रेम मिल जाए तो बाक़ी क्या ...
वाकई...यही तो राज है..
हटाएं