जीवन सरिता बहती जाती
सुख-दुःख मनहर
तटों के मध्य
जीवन सरिता बहती
जाती,
नित्य नवीन रूप
धरकर फिर
माया के नित खेल
रचाती !
बैठ नाव में चला
मुसाफिर
डोला करता सँग
लहरों के,
चल इस पार से उस
पार तक
जाने मंजिल कौन
दिशा में !
उठें बवंडर
भावनाओं के
कभी विचारों के
तूफान,
धूमिल हो जाती
निगाह फिर
नहीं नजर आता आसमान !
माया के कहीं
सर्प तैरते
ग्राह बना अबोध
पकड़ता,
तृष्णा बन शैवाल
घेरती
कभी द्रोह का पाश
जकड़ता !
जब तक दस्यु नजर
नहीं आते
रमणीक लगता यह
बहाव,
जरा-रोग का बंधन
बँधते
दुर्दम्य लगने
लगे प्रवाह !
तट पर बैठा देख
रहा जो
प्रतिपल इन लहरों
की क्रीड़ा,
रह अलिप्त वह
ज्योति बना फिर
मुक्त रहे हो सुख
या पीड़ा !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन रस्किन बांड और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
हटाएंगजब का लेखन है आपका.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रश्मि जी !
हटाएंबहुत खूब, शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंजानिए क्या है बस्तर का सल्फ़ी लंदा
स्वागत व आभार ललित जी !
हटाएंनिमंत्रण
जवाब देंहटाएंविशेष : 'सोमवार' २१ मई २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक परिचय श्रृंखला में आपका परिचय आदरणीय गोपेश मोहन जैसवाल जी से करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी !
जवाब देंहटाएंकिनारे पर जॉन बैठा रह सकता है ... भावशून्य हो के ख़ुद को नियति के हाथ छोड़ना भी कहाँ आसान होता है ...
जवाब देंहटाएंआपकी रचना माँ को nirlipt भाव में छोड़ जाती है ...
स्वागत व आभार दिगम्बर जी !
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