खुले आकाश सा
सवाल बन के जगाये कई रातों को
जवाब बनकर एक दिन वही सुलाता है
ढूँढने में जिसे बरसों गुजारे
वही हर रोज तब आकर जगाता है
जिसकी चाहत में भुला दिया जग को
जग की हर बात में नजर आता है
छुपा हुआ है जो हजार पर्दों में
खुले आकाश सा दिपदिपाता है
मांगते फिरते हैं जिससे सुखों की दौलत
बेहिसाब वह रहमतें बरसाता है !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 9.8.18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3058 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 78वां जन्म दिवस - दिलीप सरदेसाई और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
हटाएंउम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंऔर इस अनजान ईश्वर को हम नमस्कार भी न करें ... ये तो उचित नहीं ...
जवाब देंहटाएंकान कान में मौजूद और उसकी रहमत को अगर हम देख सकें महसूस कर सकें यही तो जीवन को सफल बनाएगा ... सुंदर रचना है ...
सही कहा है आपने, वह नजर मिल जाये जो रूप के पीछे अरूप को देखती है..
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