शुक्रवार, दिसंबर 7

अपने जैसा मीत खोजता




अपने जैसा मीत खोजता


ओस कणों से प्यास बुझाते,
जगती के दीवाने देखे,
चकाचौंध पर मिटने वाले
बस नादां परवाने देखे !

जो है, वही उन्हें होना है
अपने जैसा मीत खोजते,
घर है, वहीं उन्हें बसना है
वीरानों में रहे भटकते !

बदल रहा है पल-पल जीवन
जिसमें थिरता कभी न मिलती,
बांट रहा है किरणें सूरज
दिल की लेकिन कली न खिलती !

घुला-मिला सा खारापन ज्यों
तप कर निर्मल नीर त्याग दे,
छुप कर बैठा निजता में ‘पर’
वैरागी वह मिटा राग दे !

 गीत सुरीला गूँज रहा है
कोई चातक श्रवण लगाए,
मतवाला ढूंढें न मिलता
उर में पावन प्रीत जगाए !


4 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन की स्थिरता मन के जागने से ही होती है ... और प्रकाश भी तभी मिल पता है जब ग्रहण करने को मन तत्पर होता है ...
    बहुत सुन्दर रचना ... मन अनोखे अनुभव से गुज़र जाता है पढ़ते हुए ...

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  2. कविता के मर्म को अनुभूत करने के लिए स्वागत व आभार दिगम्बर जी..

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