सुख की परछाई है पीड़ा
सुख की चादर ओढ़ी ऐसी
धूमिल हुई दृष्टि पर्दों
में,
सच दिनकर सा चमक रहा है
किन्तु रहा ओझल ही खुद से !
सुख मोहक धर रूप सलोना
आशा के रज्जु से बांधे,
दुःख बंधन के पाश खोलता
मन पंछी क्यों उससे भागे ?
सुख की परछाई है पीड़ा
दुःख जीवन में बोध जगाता,
फिर भी अनजाना भोला मन
निशदिन सुख की दौड़ लगाता !
क्यों उस सुख की चाह करें
जो
दुःख के गह्वर में ले जाये,
अभय अंजुरी पीनी होगी
तज यह भय सुख खो ना जाये !
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति नमन - नामवर सिंह और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंसुख और दुःख .... एक सिक्के के दो पहलू हैं पर मन सुख की तरफ ही भागेगा ... दुःख का एहसास उसे प्रयासरत करता है ... खींत लाता है सुख की और ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ...
एक सिक्के के दो पहलू
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