रस की धार निरंतर बहती
देह व मन के घाट अधूरे
इन पर ही जो डाले डेरा,
उस से कैसे नैन मिलेंगे
स्वयं के घर न डाला फेरा !
एक पिपासा जगे न जब तक
राह नहीं निज घर की मिलती,
सूना सा घर-आँगन तन का
मन में कोई कली न खिलती !
रस की धार निरंतर बहती
बाहर ढूँढ़ रहा जग सारा,
कोई अपना हाथ पकड़ ले
दिखला दे वह कूल किनारा !
बंटती तृप्ति बिन मोल जहाँ
सहज सुखों का एक भंडार,
गली-गली क्यों फिरता आखिर
निज आँचल में बांधे प्यार !
इन पर ही जो डाले डेरा,
उस से कैसे नैन मिलेंगे
स्वयं के घर न डाला फेरा !
एक पिपासा जगे न जब तक
राह नहीं निज घर की मिलती,
सूना सा घर-आँगन तन का
मन में कोई कली न खिलती !
रस की धार निरंतर बहती
बाहर ढूँढ़ रहा जग सारा,
कोई अपना हाथ पकड़ ले
दिखला दे वह कूल किनारा !
बंटती तृप्ति बिन मोल जहाँ
सहज सुखों का एक भंडार,
गली-गली क्यों फिरता आखिर
निज आँचल में बांधे प्यार !
वाह !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सतीश जी !
हटाएं