बिखरा दूँ, फिर मुस्का लूँ
खाली कर दूँ अपना दामन
जग को सब कुछ दे डालूँ,
प्रीत ह्रदय की, गीत प्रणय के
बिखरा दूँ, फिर मुस्का लूँ !
तन की दीवारों के पीछे
मन मंदिर की गहन गुफा,
जगमग दीप उजाला जग में
फैला दूँ, फिर मुस्का लूँ !
अंतर्मन की गहराई में
सुर अनुपम नाद गूंजता,
चुन-चुन कर मधु गुंजन जग में
गुंजा दूँ, फिर मुस्का लूँ !
भीतर बहते मधुमय नद जो
प्याले भर-भर उर पाता,
अमियसरिस रस धार जगत में
लहरा दूँ, फिर मुस्का लूँ !
हुआ सुवासित तन-मन जिससे
भरे खजाने हैं भीतर
सुरभि सुगन्धित पावन सुखमय
छितरा दूँ, फिर मुस्का लूँ !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल को शुभकामनायें : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंसब कुछ दे देने के बाद जो प्रापर होता है उसकी अभिव्यक्ति शायद संभव न हो ...
जवाब देंहटाएंस्वयं को हों करना काश आसान हो जाये ... भावपूर्ण सुन्दर रचना ...
बहुत ही सुंदर रचना है
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ज्योति जी !
हटाएंसच में देने में जो सुख है उतना प्राप्त करने में नहीं...बहुत सारगर्भित रचना..
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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