मन से कुछ बातें
कितने दिन और
यहाँ घूमोगे, गाओगे
भटके हो बार-बार
कब तक झुठलाओगे ?
एक न एक.. दिन घर तो आओगे !
स्वाद लिए,
रूप देखे, सुर, सुवास में रमे
कदम थके भले यहाँ,
पल भर भी नहीं थमे
कितने ठिकानों से
दूर किये जाओगे ?
एक न एक दिन.. घर
तो आओगे !
कौन सुने बात
किसकी बंद कर्ण खुले मुख
तोड़ दिया किसी ने
यह शीशाए जिगर फिर
गीत यही आखिर कब
तक दोहराओगे ?
एक न एक दिन.. घर
तो आओगे !
भूत जान पर लगा
है भय भी अनजान का
जब तब सताएगा ही
सरस ख्वाब मान का
पहरे कहाँ तब सोच
पर लगा पाओगे ?
एक न एक दिन.. घर
तो आओगे !
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जवाब देंहटाएंअवश्य
हटाएंसच कहा है ... जितना जहाँ घूम लो मन घर में ही रमता है ... शान्ति और प्रेम का वास, इश्वर के सबसे निकट घगर ही तो है ... सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 15 जून 2019 को साझा की गई है......... "साप्ताहिक मुखरित मौन" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंअति सुंदर लेख
जवाब देंहटाएंभावनाओं की बेहतरीन अभिव्यक्ति । अच्छी लगी यह रचना । आभार ।
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत ही सुन्दर रचना ! जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवै ! घर तो आना ही होगा !
जवाब देंहटाएंभावों से नाजुक शब्द......बेजोड़ भावाभियक्ति
जवाब देंहटाएंhttps://picsgoodnight.blogspot.com/2019/10/romantic-good-night-images.html?m=1
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