शनिवार, जून 29

मन बेचारा




मन बेचारा


तोड़ डाला महज खुद को
चाह जागी जिस घड़ी थी,
पूर्ण ही था भला आखिर
कौन सी ऐसी कमी थी !

बह गयी सारी सिखावन
चाह की उन आँधियों में,
खुदबखुद ही कदम जैसे
बढ़ चले उन वादियों में !

एक झूठी सी ख़ुशी पा
स्वयं को आजाद माना,
चल रहा चाह से बंधा
राज यह मन ने न जाना !

स्वयं ही उलझन रचाता
स्वयं रस्ता खोजता था,
दिल ही दिल फिर फतेह की
गलतफहमी पालता था !

उसी रस्ते पे न जाने
लौट कितनी बार आया, 
जा रहा है स्वर्ग खुद को
नित नया सपना दिखाया !  

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (01-07-2019) को " हम तुम्हें हाल-ए-दिल सुनाएँगे" (चर्चा अंक- 3383) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीया
    सादर

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  3. ये मन की अवस्था ही तो है ...
    कई बार ऐसा लगता है की हम ही रजा हैं और जो हो रहा अहि हम ही कर रहे हैं ...

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  4. पर हर बार यह गलत निकलता है..स्वागत व आभार !

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  5. गहन भाव समेटे पंक्तियां ...बहुत ही बढि़या अभिव्‍यक्ति ।

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