शब्दों का जो अर्थ बना है
अंतर्मन की गहराई
में
कोई निर्विशेष
तकता है,
अंतरिक्ष की
ऊँचाई में
कोई सरल मौन बसता
है
चाँद, सितारे, सूरज दमकें
उसी मौन से गुंजन
जग में,
दरिया, सागर, बरखा धारे
वही मौन गति देता
पग में
हर मुस्कान वहीं
से उपजी
मृदु, मोहक, मदमस्त छबीला,
ढका हुआ पर
महकाये मन
ऋतुराजा सा सौम्य
अलबेला
शब्दों का जो
अर्थ बना है
उससे परे न जग
में कोई,
बिखरा पवन धूप सा
श्यामल
अरुणिमा कण-कण
में समोई
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 10 अगस्त 2019 को साझा की गई है........."सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सुंदर कविता अनिता जी।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार श्वेता जी
हटाएंवाह !बेहतरीन सृजन दी जी
जवाब देंहटाएंसादर
स्वागत व आभार
हटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/08/2019 की बुलेटिन, "मुद्रा स्फीति के बढ़ते रुझानों - दाल, चावल, दही, और सलाद “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार
हटाएंबहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार
हटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार
हटाएंइस मौन की उत्पत्ति से ही जीवन की और सब खुशियों की उत्पत्ति है ...
जवाब देंहटाएंजीवन के सार को सहज लिखा है ...
स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता अनिता जी।
जवाब देंहटाएंवक़्त मिले तो हमारे ब्लॉग पर भी आयें|
http://sanjaybhaskar.blogspot.com