रविवार, सितंबर 29

कैसे-कैसे डर बसते हैं




कैसे-कैसे डर बसते हैं


कैसे-कैसे डर बसते हैं
चैन जिगर का जो हरते हैं !

बीत गया जो बस सपना था
यूँ ही बोझ लिए फिरते हैं,
एक दिवस सब कुछ बदलेगा
झूठी आस किया करते हैं !

कोई तो हम जैसा होगा
व्यर्थ सभी खोजा करते हैं,
अंतर पीड़ा से भरने हित
तिल का ताड़ बना लेते हैं !

जैसे कोई कर्ज शेष हो
जग का मुख ताका करते हैं,
कैसे पार लगेगी नैया
तट पर जा सोचा करते हैं !

किस्मत ऐसी ही लिख लाये
उस पर दोष मढ़ा करते हैं,
चले कभी न स्वयं जिस पथ पर
दूजों से आशा करते हैं !

शुक्रवार, सितंबर 27

एक पाती मृणाल ज्योति के नाम


एक पाती मृणाल ज्योति के नाम


बरसों पहले जब तुम्हारा जन्म ही हुआ था
नन्हे थे तुम अभी नामघर में पल रहे थे
एक दिन अवसर मिला था मुलाकात का
सिलसिला वह रुका नहीं और...
 एक रिश्ता बनता गया
तुमसे किसी गहरे जज्बात का !
साक्षी बनी उस दिन की जब
दुलियाजान क्लब में एक मेला लगा था
अनेक तरह के सबने स्टाल लगाये
नेहरू मैदान तक एक बार जुलूस भी निकला था
राखियाँ बनाकर क्लब में लगाई थीं दुकानें
ऐसे ही न जाने कितने हैं अफसाने
सफाई अभियान में झाड़ू लगाया
स्टेज पर कार्यक्रम का संचालन किया
राजगढ़ में बनी साक्षी नई शाखा की
भाग लिया 'परिवार' के कार्यक्रम में
दुलियाजान व डिब्रूगढ़ में
बच्चों को कुछ माह हिंदी पढ़ाई
योग व प्राणायाम की विधि सिखाई
शिक्षकों के साथ भी बिताये कुछ पल
पहचानें वे स्वयं को दिया इसके लिए संबल
आज जाने की बेला है
मन में यादों का एक रेला है
समय-समय पर कितनी मासूम आवाजों ने तुम्हें पुकारा है
आज युवा हो गये हो
अनगिनत समर्थ हाथों ने तुम्हें संवारा है
इसी तरह तुम्हें आगे भी बलवान होना है
अपने पैरों पर खड़े ही नहीं होना
हर बच्चे की आशाओं पर कुर्बान होना है !

मंगलवार, सितंबर 24

ख्वाबों में जो मिला है



ख्वाबों में जो मिला है


ख्वाबों में जो मिला है
बनकर हकीकत आये,
कितने किये थे सजदे
कई कुसुम भी चढ़ाये !

खोया नहीं था इक पल
बिछड़ा नहीं था खुद से,
वह छुप गया था भीतर
बाहर ही मन लगाये !

कैलाश का है वासी
पातालों में बसे हम,
रहे द्वार बंद दिल के
धारा कहाँ से जाए !

बिखरता सुवास सा वह
पाहन सा  चुभता अंतर,
भला क्यों मिलन घटेगा
बगीचे नहीं सजाये !

बादल सा भरा बैठा
मरुथल बना यह जीवन,
मन मोर बन के नाचे
तत्क्षण ही बरस जाये !

सुख सुहावनी पवन सा
लुटाता जहाँ विजन हो,
अंतर में जग भरा है
कैसे वह गीत गाये !


शुक्रवार, सितंबर 20

जैसे एक पवन का झोंका



जैसे एक पवन का झोंका


तितली, बादल, फूल, आसमां
उड़ते, बनते, खिलते यकसां,
देख-देख मुस्काए कोई
दिल में रहता शावक जैसा !

पुलक भरा है जोश भरा भी
ढहा दिए अवरोध सभी ही,
खिले कमल सा रहे प्रफ्फुलित
तज दी उर की आह कभी की !

जैसे एक पवन का झोंका
या कोई बादल का टुकड़ा,
तिरता नभ में हौले हौले
तृण भर भी आधार न पकड़ा !

मस्ती की गागर हो जैसे
हरियाली सा पसरे ऐसे, 
इक सुवास मदमस्त करे जो
मन बौराए भला न कैसे !

खिलना ही होगा हमको भी
राह देखता भीतर कोई,
मिलना होगा उससे जाकर
अंतर जिसकी याद समोई !

गुरुवार, सितंबर 19

आशा फिर भी पलती भीतर



आशा फिर भी पलती भीतर


राहें कितनी भी मुश्किल हों
होता कुछ भी ना हासिल हो,
आशा फिर भी पलती भीतर
चाहे टूट गया यह दिल हो !

प्यार की लौ अकम्पित जलती
गहराई में कलिका खिलती,
नजरें जरा घुमा कर देखें
अविरल गंगा पग-पग बहती !

महादेव रक्षक हों जिसके
रोली अक्षत हों मस्तक पे,
किन विपदाओं से हारे वह
भैरव मन्त्र जपा हो मन से !

सृष्टि लख जब याद वह आये
बरबस मन अंतर मुस्काए,
अपनेपन की ढाल बना है
बाँह थाम वह पार लगाये !

सुख-दुःख में समता जो साधे
मन वह बोले राधे-राधे,
हँसते-हँसते कष्ट उठाये
सदा समर्पित जो आराधे !

मंगलवार, सितंबर 3

झक्क उजाले सा



झक्क उजाले सा


रेशमी धूप सा जो सहलाता है अंतर
वही सूरज पांव मरुथलों में जलाता है

मीठी सुवास सा बहलाता है जो मन को
नुकीले पथ सा वही प्रेम चुभे जाता है

झक्क उजाले सा जो भर देता है आकाश
घन अँधेरे का सबब वही तो बन जाता है

सिवाय हँसने के क्या कहें इन अदाओं पर
 दे एक हाथ दूजे हाथ लिए जाता है