कैसे-कैसे डर बसते हैं
कैसे-कैसे डर बसते हैं
चैन जिगर का जो हरते हैं !
बीत गया जो बस सपना था
यूँ ही बोझ लिए फिरते हैं,
एक दिवस सब कुछ बदलेगा
झूठी आस किया करते हैं !
कोई तो हम जैसा होगा
व्यर्थ सभी खोजा करते हैं,
अंतर पीड़ा से भरने हित
तिल का ताड़ बना लेते हैं !
जैसे कोई कर्ज शेष हो
जग का मुख ताका करते हैं,
कैसे पार लगेगी नैया
तट पर जा सोचा करते हैं !
किस्मत ऐसी ही लिख लाये
उस पर दोष मढ़ा करते हैं,
चले कभी न स्वयं जिस पथ पर
दूजों से आशा करते हैं !