कैसे-कैसे डर बसते हैं
कैसे-कैसे डर बसते हैं
चैन जिगर का जो हरते हैं !
बीत गया जो बस सपना था
यूँ ही बोझ लिए फिरते हैं,
एक दिवस सब कुछ बदलेगा
झूठी आस किया करते हैं !
कोई तो हम जैसा होगा
व्यर्थ सभी खोजा करते हैं,
अंतर पीड़ा से भरने हित
तिल का ताड़ बना लेते हैं !
जैसे कोई कर्ज शेष हो
जग का मुख ताका करते हैं,
कैसे पार लगेगी नैया
तट पर जा सोचा करते हैं !
किस्मत ऐसी ही लिख लाये
उस पर दोष मढ़ा करते हैं,
चले कभी न स्वयं जिस पथ पर
दूजों से आशा करते हैं !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 29 सितंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (30-09-2019) को " गुजरता वक्त " (चर्चा अंक- 3474) पर भी होगी।
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसत्य लिख दिया ...
जवाब देंहटाएंखुद नहीं चलते जिस पथ पर दूजे के चलने की आशा करते हैं ... इंसान ऐसा ही है ... स्वार्थी, बहाना खोजने वाला ... किस्मत का नाम ले कर दूसे को दोष देने वाला ... सार्थक रचना है ... गहरा अर्थ लिए ...
स्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति आदरणीया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंतैर कर ग़र तू निकलता, नाव में तब पाँव रखता,
जवाब देंहटाएंडूबता तू ग़र कहीं तो, मैं नदी से दूर रहता.
वाह ! स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सृजन दी
जवाब देंहटाएंसादर