आदमी
सुलगता इक सवाल बन गया है आदमी
चेतना ज्यों सो गयी
शरम-हया खो गयी
गली गली दानव हैं
मनुष्यता रो गयी
जूझता इक बवाल बन गया है आदमी
आधी रात तक जगे
भोर नींद में कटे
देवों का ध्यान नहीं
नियम वरत सब मिटे
उलझता इक ख्याल बन गया है आदमी
हवा धुऑं धुआँ हुई
सूरज भी छुप गया
अपने ही हाथों से
जहर ज्यों घोल दिया
'नादान' इक मिसाल बन गया है आदमी
अपने ही देश में
तोड़-फोड़ कर रहा
सभ्यता की दौड़ में
अनवरत पिछड़ रहा
वाकई इक जमाल बन गया है आदमी
सुंदर और सार्थक रचना ,सादर नमन
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(20 -12 -2019) को "कैसे जान बचाऊँ मैं"(चर्चा अंक-3555) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता लागुरी 'अनु '
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसटीक यथार्थ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसटीक सार्थक अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंबस अपना अप्पना ही सोच रहे हैं ये लोग जो ऐसा कृत्य किसी के भड़काने या कुछ पैसों की खातिर कर रहे हैं ... देश की कौन सोच रहा है इस समय ...
सही कहा है आपने, आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसटीक अभिव्यक्ति
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