‘तू’ ‘मैं’ होकर ही खिलता है
‘मैं’ ‘तू’ होकर ही मिलता है
‘तू’ ‘मैं’ होकर ही खिलता है,
मन अंतर में यह खेल चले
बाहर इक कण ना हिलता है !
जो विभु अतीव वह क्षुद्र बना
सागर से ही हर लहर उठी,
मायापति वरत योगमाया
यह मन माया से रचता है !
जब तक यह भेद नहीं जाना
मैं'' खुद को ही स्वामी समझे,
फिर जो भी कर्म किये उसने
उसके बंधन में फँसता है !
यदि खुद का किया नहीं रुकता
यह चक्र कभी ना टूटेगा,
इक कठपुतली सा नाच रहा
अनजाना बना फिसलता है !
जो झुक जाये उन चरणों में
‘मैं’ को ‘तू’ ही ढक लेता जब,
सुन मद्धिम सी आवाजों में
कुछ सूत्र नए, संभलता है !
जैसे-जैसे ‘मैं’ ‘तू’ बनता
‘तू’ ही ‘तू’ रह जाता केवल
फिर कैसा कर्मों का बंधन
मन पंछी बना विचरता है !
सशक्त प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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