वाणी
वाणी का वरदान मिला है
मानव को !
पर अभिशाप बना लेता है
व्यर्थ, असत्य, कटु वचनों से
निज खाते पाप लिखा लेता है
लहजे में यदि छिपी शिकायत
स्वयं की कमजोरी ही झलके
या तेजी हो शब्दों में तो
मन की अस्थिरता ज्यों ढलके
रोषपूर्ण यदि वचन निकलते
अहंकार का खेल चल रहा
घुमा-फिरा कर बात कही तो
मन अनजाना खुद को छल रहा
स्वयं की राय थोपने जाता
मन खुद उसमें धँसता जाता
जब तक दर्पण नहीं बनेगा
जग जैसा है उसमें आखिर
कैसे वैसा ही झलकेगा ?
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-06-2020) को 'बिगड़ गया अनुपात' (चर्चा अंक 3726) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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-रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाणी ...
जवाब देंहटाएंसत्य कहा है आपने ... ये वरदान कई बार इंसान खुद ही अभिशाप बना लेता है ...