खेल कोई चल रहा ज्यों
विवश होकर आज मानव
कैद घर में पूछता यह,
कब कटेगी रात काली
कब उजाला पायेगा वह ?
उच्च शिखरों पर चढ़ी थी
धूल धुसरित आज आशा,
खेल कोई चल रहा ज्यों
साँप-सीढ़ी की सी भाषा !
रज्जु को यदि सर्प माना
भय की दीवारें चुन ली,
किन्तु ऐसा भी चलन है
सर्प से ही आड़ बुन ली !
आज ऐसा ही समय है
व्यर्थ सारा श्रम हुआ है,
जहाँ पनपी आस्था थी
भान होता भ्रम हुआ है !
सत्य को यदि ढूँढ पाए
भूल से वह नहीं छिटके,
राह अपनी जो चुनें फिर
कदम ना उस डगर ठिठके !
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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