मंगलवार, अगस्त 25

बैठ हवा के पंखों पर ही

 बैठ हवा के पंखों पर ही 

सर-सर मर्मर पवन बह रही  

ठंड अति कभी ताप सह रही,

शीतलहर में ठिठुराती तन

स्वेद बहे यदि तप्त हो गयी !

 

कभी धूलि का उठे बवंडर 

छूकर आती कभी समुन्दर, 

चलती कभी पवन पुरवाई 

मंद झँकोरा अति सुखदायी !

 

हवा जलाती, हवा बुझाती

हवा उड़ाती, हवा सुखाती, 

प्राणों का आधार हवा है 

जीवन का भी द्वार हवा है !

 

प्रातः समीरण अति सुखदायी

हौले से सहलाने आती, 

बेला, चंपा की सुवास भर 

रजनी गंधा को महकाती !

 

झूम रहे जब खेत बाग वन 

दृश्य अति लगते वे मनोहर, 

हवा डुलाती हौले-हौले 

झूमें लहरें झील, नदी पर ! 

 

बासों से हो  हवा गुजरती 

सांय-सांय का गीत गूँजता,

छम-छम पत्तों का भी नर्तन 

संग पवन तृण गगन चूमता !

 

संग पवन के उड़ते-उड़ते 

बीज सुदूर यात्रा करते, 

बैठ हवा के पंखों पर ही 

यहाँ-वहाँ गिर भू पर उगते !

 

पंच प्राण प्राणी के भीतर 

गतियां सब संचालित करते, 

वायु बिना सब स्थिर हो जाये 

वायुदेव ही जीवन भरते !

 

हवा बदलियों को  ले जाती 

जीवन का आधार बनी है, 

कोमल शीतल परस पवन का 

महादेव का  महाभूत है !

 

अति सूक्ष्म तत्व प्रवाह रूपी 

भूमंडल को घेरे रहती, 

जैसे अपने आँचल में ले 

शिशु को माँ संभाले रहती !

 


4 टिप्‍पणियां: