छोटी-छोटी उलझनों में खोया मन 
देख ही नहीं पाता स्वयं को 
हृदय कमल पर केवल ब्रह्मा ही तो नहीं विराजते 
जो खोजने निकल पड़ते हैं निज मूल 
और भेंट होती है उनकी नारायण से 
 करे प्रवेश यदि हृदय गुहा में 
मन डरे  बिना बढ़ता ही चले 
तो सम्भवतः दर्शन करेगा किसी क्षण में 
उस विराट का 
पर  लगा है वह किसी न किसी उधेड़बुन में 
भय, आशंका, लोभ अथवा 
कल्पनाओं के महल गढ़ जाने किस धुन में  
मनोराज चलता रहेगा 
जब तक... स्वयं को छलता रहेगा 
जीवन से बिना मिले ही हो जायेगा विदा !
पर जीवन ? 
क्या वह उत्सुक नहीं उससे मिलने को 
पुनः पुनः इसी धरा पर जन्मा 
कराने एक और यात्रा…
इन्हीं यात्राओं में एक यात्रा होगी अंतिम 
जिसमें मन जीवन बन जायेगा 
दिन-रात आनंद के फूल खिलायेगा ! 
मन से मन की अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार(07-08-2020) को "राम देखै है ,राम न्याय करेगा" (चर्चा अंक-3786) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
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"मीना भारद्वाज"
बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहूत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंसादर ।
स्वागत व आभार !
हटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्द्र और सारगर्भित।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुंदर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना,सादर नमन आपको
स्वागत व आभार !
हटाएंबहुत ही सुंदर.
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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