एक
अगोचर वह अनदेखा
भरा-भरा घर किन्तु हृदय में
इक खालीपन सदा सताता,
सुना है कि कोई बिरला ही
भरे रिक्तता को मुस्काता !
अमल अनोखा एकांत यहाँ
जगत यह जिसको भर न पाए,
अजर, अगोचर वह अनदेखा
गीत न जब तक खुद गुंजाये !
जगत दे रहा जो दे सकता
अल्प मान और सम्मान भी,
अपनों की छाया भी मिलती
प्रश्नों का कुछ समाधान भी !
फिर भी कोई कमी अजानी
दिवस-रात साले जो मन को,
किसकी तृषा करे उर घायल
किसका सपन पालती है वो !
उसके सिवा न कोई जाने
जीवन जिसने दिया मनोहर,
अंतर को विश्राम मिलेगा
मिलन पूर्णता से हो जिस क्षण !
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 03 नवंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (04-11-2020) को "चाँद ! तुम सो रहे हो ? " (चर्चा अंक- 3875) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सुहागिनों के पर्व करवाचौथ की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआदरणीया अनिता जी, आपकी इस भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक साधुवाद! ये पंक्तियाँ बहुत सुंदर हैं:
जवाब देंहटाएंफिर भी कोई कमी अजानी
दिवस-रात साले जो मन को,
किसकी तृषा करे उर घायल
किसका सपन पालती है वो !
--ब्रजेन्द्रनाथ