निकट समंदर बहता जाता
जाग-जाग कर फिर सो जाता
नींदों में मन स्वप्न दिखाता,
रंग-रूप-रस-गंध खान में
निज आनंद छुपा रह जाता !
घूँट- घूँट भर तृप्त हो रहा
निकट समंदर बहता जाता,
मुक्त गगन की याद न आए
पिंजरे में ही दौड़ लगाता !
कैसा भूला भ्रम में खुद को
वंचित हुआ स्वर्ग के सुख से,
इंद्रधनुष को सत्य मानकर
चला उसे है धारण करने !
ज्यों सीप में चांदी का भ्रम
मृग मरीचिका मरुथल में है,
पानी मथने में नहीं सार
कहाँ कूप में गंगाजल है !
अनजाने दुख धूम्र उठाते
ज्योति ज्ञान की बुझ-बुझ जाती,
एक ही माँ के जाए दोनों
देख-देख कोई मुस्काता !
स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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