प्रेम से कोई उर न खाली
एक बूंद ही
प्रेम अमी की
जीवन को रसमय कर
देती,
एक दृष्टि आत्मीयता की
अंतस को सुख से
भर देती !
प्रेम जीतता आया
तबसे
जगती नजर नहीं
आती थी,
एक तत्व ही था
निजता में
किन्तु शून्यता
ना भाती थी !
स्वयं शिव से ही प्रकटी शक्ति
प्रीति बही थी
दोनों ओर,
वह दिन और आज का
दिन है
बाँधे कण-कण
प्रेम की डोर !
हुए एक से दो थे
जो तब
एक पुन: वे होना चाहते,
दूरी नहीं
सुहाती पल भर
प्रिय से कौन न
मिलन मांगते !
खग, थलचर
या कीट, पुष्प हों
प्रेम से कोई उर
न खाली,
मानव के अंतर ने
जाने
कितनी प्रेम
सुधा पी डाली !
करूणा प्रेम
स्नेह वात्सल्य
ढाई आखर सभी पढ़
रहे,
अहंकार की क्या हस्ती फिर
प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !
खग, थलचर या कीट, पुष्प हों
जवाब देंहटाएंप्रेम से कोई उर न खाली,
मानव के अंतर ने जाने
कितनी प्रेम सुधा पी डाली ! ..बहुत ही खूबसूरती से प्रेम को परिभाषित किया है आपने..वाक़ई प्रेम का बहुत ही विस्तृत संसार है..।।
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 22 नवंबर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंआभार !
हटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंप्रेम अमी की बुंदे बरसे ....
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