झलक उसकी बरस जाती
कल्पना के पंख ओढ़े
उर गगन में उड़ रहा है,
कभी शीतल चंद्रमा,घन
ताप से भी जुड़ रहा है !
जाग कर देखे घड़ी भर
रात-दिन यूं घट रहे हैं,
जो कभी उगता न डूबा
पूर्व-पश्चिम छल रहा है !
सत नहीं जो मान उसको
व्यर्थ ही मन बोझ ढोता,
जो कभी आए नहीं भय
उन दुखों का खोज लेता !
स्वयं मंजिल दूर रखकर
दौड़ उसकी फिर लगाता,
पूर्ण होकर "भरूँ कैसे ?"
मंत्र का फिर जाप करता !
इक खलिश की आंच दिल में
सुगबुगा धूआँ उठाती,
प्रखर ज्वाला बन जले यदि
झलक उसकी बरस जाती !
सुन्दर गीत।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत खूब !
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