हवा का सागर
हवा की सरगोशियाँ गर कोई सुन सके
पल भर भी तन्हा छोड़ती न रब हो जैसे
लिपट जाती परस उसका फूल जैसा
जिंदगी को राह देती श्वास बनकर
झूमते वट, वृक्ष, जंगल, लता, पादप, फूल सारे
लहर दरिया, सिंधु के तन पर उठाती
सरसराती सी कभी कानों को छूले
सुनो ! कहती मत कहो, तुम हो अकेले !
वह संदेशे ही सुनाए, राज खोले उस पिया का
डोलते पंछी से पूछो तैरता क्यों वह हवा में
मीन जैसे जल में निशदिन वास करती
जी रहे हैं चैन से हम सागरों में ही हवा के !
निसदिन वास करती। सुन्दर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर सरस मनोहारी कृति..
जवाब देंहटाएंहवाओं की ....साँस सम अनुभूति ...
जवाब देंहटाएंजी हाँ, श्वास श्वास में वही तो है
हटाएंबहुत सुन्दर रचना।
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गणतन्त्र दिवस की पूर्वसंध्या पर हार्दिक शुभकामनाएँ।