गुरुवार, फ़रवरी 18

जो झर रहा है आहिस्ता से


जो झर रहा है आहिस्ता से

जब वह पकड़ लेता है कलम अपने हाथों में 

तो झर-झ र झरते हैं शब्द अनायास ही 

वरना छोटे पड़ जाते हैं सारे प्रयास ही 

छोड़ दो उसकी राह में 

अंतर के सारे द्वन्द्व 

बात ही न करो सीमित की 

वह अनंत है 

रास नहीं आती उसे शिकायतें 

वह तो बहना चाहता है 

ऊर्जा का..  उल्लास का..  सागर बनकर रगों में 

जो ‘है नहीं’ उसकी चर्चा में सिर खपाना क्या 

जो ‘है’ उसका गुणगान करो 

जो छिपा है पर नजर नहीं आता उसे महसूस करना है 

जो झर रहा है आहिस्ता से 

उसे कण -कण में भरना है 

वह जीवन है विशाल है 

अपना मार्ग खुद बनाएगा 

उसे हाथ पकड़कर चलाने की जरूरत नहीं है 

वह तुमको राह दिखाएगा 

अनूठा है उसका सम्मान करो 

न कि व्यर्थ ही जीवन में व्यवधान भरो ! 


 

7 टिप्‍पणियां:

  1. बस सहज सरल बहते जाना है
    मन के व्यवधान को हटाना है ।

    यही कहती सुंदर रचना ।

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  2. जो ‘है नहीं’ उसकी चर्चा में सिर खपाना क्या

    जो ‘है’ उसका गुणगान करो..बहुत सुन्दर, सार्थक संदेश..

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  3. जो झर रहा है आहिस्ता से

    उसे कण -कण में भरना है

    वह जीवन है विशाल है

    अपना मार्ग खुद बनाएगा

    मन के भावों की सुंदर अभिव्यक्ति,सादर नमन आपको

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