दूजा निज आनंद में डूबा
पंछी दो हैं एक बसेरा
एक उड़े दूसरा चितेरा,
निज प्रतिबिम्ब से चोंच लड़ाता
कभी जाल में भी फंस जाता !
कड़वे मीठे फल भी खाये
बार-बार खाकर पछताए,
इस डाली से उस शाखा पर
व्यर्थ ही खुद को रहा थकाए !
कुछ पाने की होड़ में रहता
क्षण-क्षण जोड़-तोड़ में रहता,
कभी तके दूजे साथी को
जो बस देखे कुछ न कहता !
पलकों में जब नींद भरी हो
फिर भी करता व्यर्थ जागरण,
दूजा निज आनंद में डूबा
देख रहा है उसका वर्तन !
सारगर्भित भावों से भरी अनुपम कृति..
जवाब देंहटाएंलौकिक अलौकिक सन्दर्भो को जीती आपकी रचना अनुपम है..सादर प्रणाम
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और भावप्रवण रचना।
जवाब देंहटाएंकितना सुंदर गीत । बहुत खूब
जवाब देंहटाएंकुछ पाने की होड़ में रहता
जवाब देंहटाएंक्षण-क्षण जोड़-तोड़ में रहता,
कभी तके दूजे साथी को
जो बस देखे कुछ न कह,,,,,,,,,,,,, बहुत सुंदर गीत,
रूहानी रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सृजन!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और हृदयग्राही भावों से सुसज्जित अनुपम अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसुंदर भी, सटीक भी, सार्थक भी ।
जवाब देंहटाएंआप सभी सुधीजनों का हृदय से स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सराहनीय
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