रहमतें बरसती हैं
करें क़ुबूल सारे गुनाहों को हम अगर
रहमतें बरसती हैं, धुल ही जायेंगे
हरेक शै अपनी कीमत यहाँ माँगे
भला कब तक चुकाने से बच पाएंगे
वही खुदा बसता सामने वाले में भी
खुला यही राज कभी तो पछतायेंगे
मांग लेंगे करम सभी नादानियों पर
और अँधेरे में मुँह नहीं छुपायेंगे
उजाले बिखरे हैं उसकी राहों में
यह अवसर भला क्यों चूक जायेंगे
अपनी ख्वाहिशें परवान चढ़ाते आये
अब उसी मालिक के तराने गाएंगे
भूख से ज्यादा मिला प्यास फिर भी न बुझी
आखिर कब तक यह मृगतृषा बुझाएंगे
हरेक शै अपनी कीमत यहाँ माँगे, भला कब तक चुकाने से बच पाएंगे। बिलकुल सही कहा आपने। बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है यह आपकी।
जवाब देंहटाएंकाश सब अपने अपने गुनाह कबूल कर सकें । रहमत बरसे ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार संगीता जी !
हटाएं