धरती, सागर, नीलगगन में
सत्यम, शिवम, सुंदरम तीनों
झलक रहे यदि अंतर्मन में,
बाहर वही नजर आएँगे
धरती, सागर, नीलगगन में !
सत्यनिष्ठ उर तीव्र संकल्प
बन शंकर सम करे कल्याण,
सुंदरता का बोध अनूठा
जगा दे जड़-चेतन में प्राण !
कुदरत भी अनुकूल हो रहे
अंतर अगर सजग हो जाये,
हर दूरी तज स्वजन बना ले
दोनों एक साथ सरसायें !
अंतर्मन हो सदा प्रतिफलित
बाहर सहज सृष्टि बन जाता,
उहापोह हर द्वंद्व मनस का
जग में कोलाहल बन जाता !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (22 -6-21) को "योग हमारी सभ्यता, योग हमारी रीत"(चर्चा अंक- 4103) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार !
हटाएंकुदरत भी अनुकूल हो रहे
जवाब देंहटाएंअंतर अगर सजग हो जाये,
हर दूरी तज स्वजन बना ले
दोनों एक साथ सरसायें !--
बहुत अच्छी पंक्तियां अनीता जी। रचना भी बहुत अच्छी है।
स्वागत व आभार सन्दीप जी !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंवाह ...
जवाब देंहटाएंसत्यम शिवन मुन्द्रम के बाह्य रूप को भी बाखूबी प्रकाश में ला दिया ...
धरती सागर नीलांगन ... बहुत उत्तम ...