प्रेम उस के घर से आया
बन उजाला, चाँदनी भी
इस धरा की और धाया
वृक्ष हँसते कुसुम बरसा
कभी देते सघन छाया
नीर बन बरसे गगन से
लहर में गति बन समाया
तृषित उर की प्यास बुझती
सरस जीवन लहलहाया
खिलखिलाती नदी बहती
प्रेम उसकी खबर लाया
मीत बनते प्रीत सजती
गोद में शिशु मुस्कुराया
वाह! बहुत सुंदर भाव!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-09-2021) को चर्चा मंच "भौंहें वक्र-कमान न कर" (चर्चा अंक-4181) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार!
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंखिलखिलाती नदी बहती
जवाब देंहटाएंप्रेम उसकी खबर लाया
मीत बनते प्रीत सजती
गोद में शिशु मुस्कुराया -बढ़िया साहित्यिक तेवर प्रतीक लिए आला गीत।
kabirakhadabazarmein.blogspot.com
स्वागत व आभार !
हटाएंबन उजाला, चाँदनी भी
जवाब देंहटाएंइस धरा की और धाया
वृक्ष हँसते कुसुम बरसा
कभी देते सघन छाया
लाजवाब भावों की अनुपम अभिव्यक्ति ।
वाह ! बहुत सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ... भापूर्ण ...
जवाब देंहटाएंआशा का संचार करते शब्द ...
तृषित उर की प्यास बुझी ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव
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