मन चातक सा तकता रहता
सागर के तट पर बैठा हो
फिर भी कोई, प्यासा ! कहता,
जीवन बन उपहार मिला है
मन चातक सा तकता रहता !
अभी बनी खोयी पल भर में
लहर जानती कहाँ स्वयं को,
छोटे से जीवन में अपने
टकराया करती आख़िर क्यों !
पीड़ा का क्या यही सबब है
सीमित इक पहचान बनायी,
माटी का पुतला है यह तन
स्वप्नों में ही प्रीत रचायी !
कौन जोड़ता है कण-कण को
किससे मानस क्या बना लहर,
नित्य अजन्मा है असंग जो
एक तत्व ऐसा भी भीतर ?
बहुत बहुत आभार पम्मी जी!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-11-2021) को चर्चा मंच "छठी मइया-कुटुंब का मंगल करिये" (चर्चा अंक-4244) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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छठी मइया पर्व कीहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंकौन जोड़ता है कण-कण को
जवाब देंहटाएंकिससे मानस क्या बना लहर,
नित्य अजन्मा है असंग जो
एक तत्व ऐसा भी भीतर ?
बहुत ही उम्दा रचना!
स्वागत व आभार मनीषा जी!
हटाएंसागर के तट पर बैठा हो
जवाब देंहटाएंफिर भी कोई, प्यासा ! कहता,
भाव विभोर कर दिया इस पंक्ति ने।
बधाई
स्वागत व आभार!
हटाएंअति उत्तम सार्थक
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंपीड़ा का क्या यही सबब है
जवाब देंहटाएंसीमित इक पहचान बनायी,
माटी का पुतला है यह तन
स्वप्नों में ही प्रीत रचायी !
बहुत सुंदर पंक्तियाँ...
सुंदर जीवन दर्शन से परिपूर्ण रचना ।
जवाब देंहटाएंअनीता जी, मनोज जी, विकास जी और जिज्ञासा जी आप सभी का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंअप्रतिम रचना
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