मंगलवार, दिसंबर 7

संध्या बेला

संध्या  बेला  

तमस की काली रात्रि 
अथवा रजस का उजला दिन 

दोनों रोज ही मिलते हैं 

अंधकार और प्रकाश के 

इस खेल में हम नित्य ही स्वयं को छलते हैं 

चूक जाती है दोनों के 

मिलन की सन्ध्या बेलायें 

जब प्रकाश और तम एक-दूसरे में घुलते हैं 

उस सलेटी आभा में 

सत छिपा रहता है 

पर कभी अँधेरा कभी उजाला 

उसे आवृत किये रहता है 

वही धुधंला सा उजास ही 

उस परम की झलक दिखाता है 

जब मन की झील स्वच्छ हो और थिर भी 

तभी उसमें पूर्ण चंद झलक जाता है 

न प्रमाद न क्रिया जब मन को लुभाती है

तब ही उसकी झलक मिल पाती है  !


9 टिप्‍पणियां:

  1. धुधंला सा उजास ही
    उस परम की झलक दिखाता है
    जब मन की झील स्वच्छ हो और थिर भी
    तभी उसमें पूर्ण चंद झलक जाता है
    प्रकृति और आध्यात्म का सुन्दर समन्वय । सुन्दर सृजन ।

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  2. खुद में झाँक सके तो परम आनंद और खुद दोनों से ही मुलाक़ात सम्भव है ...
    सुन्दर रचना ...

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(०९-१२ -२०२१) को
    'सादर श्रद्धांजलि!'(चर्चा अंक-४२७३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  4. चूक जाती है दोनों के

    मिलन की सन्ध्या बेलायें

    जब प्रकाश और तम एक-दूसरे में घुलते हैं

    बहुत ही सुन्दर.. लाजवाब सृजन 🙏

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  5. जब मन की झील स्वच्छ हो और थिर भी

    तभी उसमें पूर्ण चंद झलक जाता है
    बस यही तो दुष्कर भी है मन को स्थिर रखना।
    सारगर्भित सृजन।

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